सिया के राम

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सिया के राम
08 Nov 2021
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यह त्याग सच में दिल को झकझोरने वाली है और इस कहानी में इतना दर्दनाक अंत जो हम सबकी‌आँखों में आंसू ला दे, लेकिन अब न तो कोई सीता है, और न ही कोई राम, वही समाज आज भी है, लांक्षन लगाने वाला, जो स्त्री के चरित्र पर सवाल उठाने से नहीं कतराता। वह पुरुषों के लिए समय सीमा नहीं तय करता लेकिन शाम और रात स्त्रियों के लिए तय कर चुका है। खैर अब कोई सीता भी नहीं क्योकि अब कोई राम भी नहीं। सीता माँ ने देख लिया की यह समाज निर्दयी है, इसलिए अब चंडी रूप ही इस समाज के लिए सही है। 

राम का नाम सुमिरन भर से हर वो काम सफल हो सकता है, जो शायद ही हक़ीक़त में मुमकिन हो सकता है, बशर्ते नाम हृदय से लिया गया हो। हम श्री राम की महिमा का गुणगान तो सदा से सुनते आये हैं, लेकिन हमने इस रामलीला में मुख्य भूमिका किसकी रही यह कभी सोचने की कोशिश शायद ही की है। जनक जननी, श्री राम की जीवन संगिनी, माता सीता हमने हमेशा उन्हें इस रूप में समझा, लेकिन आज हम श्री राम को सीता माँ की दृष्टि से समझेंगे और जानेंगे की कैसे सिया के राम इस पूरे रामलीला में बिन सीता कुछ भी नहीं हैं। 

कहानी कहें यह महाकाव्य रमायाण है, पुण्य कथा सिया के राम की, धरती से जन्मी माँ सीता, अपने घर की सौभाग्य बनी, उनकी शादी भी एक प्रकार का जुआं था, लेकिन जब निर्माता ने खुद कहानी लिखी हो तो सब मंगल होना निश्चित है, माँ ने जब श्री राम को अपना जीवन साथी चुना था तो उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा की एक दिन उनपर लांक्षन लगेंगे और उसे मिथ्या साबित करने के लिए श्री राम स्वयं उनसे कहेंगे। 

वन में जब श्री राम माता के लिए भोजन की तलाश में भटक रहे थे, तभी लक्ष्मण माता की सुरक्षा में कुटिया के समीप प्रहरी बन खड़े थे, माता को अचानक से श्री राम की आवाज़ सुनाई दी और लक्ष्मण जी को भी सुनाई दी। अर्धांगिनी अपने पति की व्याकुल भाषा समझ जाती है, प्रेम में स्त्री अपने शुध-बुध को खो बैठती है, लक्ष्मण जी अपने भाई के दिए हुए वचनों पर बाध्य थे, लेकिन माँ अपने प्रियवर की चीख कैसे नज़रअंदाज कर पाती, इसलिए उन्होंने लक्ष्मण को वन में जाने का आदेश दिया, जिससे भैया लक्ष्मण के पास जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा, लेकिन सुरक्षा हेतु उन्होंने माता के कुटिया के चारो तरफ सुरक्षा कवच की एक रेखा खींच दी और माता को उसके अंदर रहने की हिदायत दी और वह श्री राम की खोज में निकल गए। 

सीता अब व्याकुल हैं, उन्हें अंदाजा भी नहीं कि अब उनके साथ क्या होने वाला है, उनके धर्य की परीक्षा, उनके संयम की परीक्षा और फिर अग्नि परीक्षा। खैर समाज को जीवन का पाठ पढ़ने के लिए और उन्हें सही राह दिखने के लिए जितने रास रचने थे और मानव स्वरूप में भगवान और माता को जितने कष्ट सहने थे, उन्होंने सब किया। रावण कुटिया के समीप आया, माता को जबरन लंका ले गया। उसने सीता की एक न सुनी माता ने जटायु के माध्यम से श्री राम तक सन्देश पंहुचा दिया। सात समुन्दर पार माँ ने अपने तपिश से रावण को अपने समीप नहीं भटकने दिया। रावण ने उन्हें बहुत बहलाया, फुसलाया उन्हें प्रभु श्री राम के मरने की झूटी खबरें भी दी, लेकिन माँ का विश्वास नहीं डिगा। 

यही सीता हैं, एक स्त्री जब चाह ले तो यमराज से अपने पति  के प्राण भी वापस ले सकती है और फिर माता सीता तो स्वयं लक्ष्मी स्वरूपा हैं, लेकिन मानव रूप में उन्होंने अपने धैर्य की परीक्षा दी, अपने विश्वास की परीक्षा दी, लेकिन हमने उन्हें क्या दिया ? आरोप-प्रत्यारोप में हमने माता के पवित्रता का प्रमाण श्री राम को मांगने पर मजबूर कर दिया। लेकिन खटकने वाली बात तो यह है, कि उस धोबिन का उदारण के तौर पर ऐसा माता के ऊपर लांक्षन न लगे इसलिए उन्होंने माता से अग्नि परीक्षा भरे समाज में करवाई, क्या यह तौहीन नहीं है, किसी के विश्वास का ? यदि प्रजा माता के चरित्र पर लांक्षन उठा रही थी तो श्री राम उन्हें पद से हटा सकते थे, लेकिन उन्होंने माता के गर्व को साबित करना चाहा और जब प्रजा ने कहा कि हमने तो अग्नि परीक्षा नहीं देखी  तो फिर उन्होंने माता का रातों-रात बहिष्कृत कर दिया। 

माता ने खुद को पवित्र सिद्ध कर धरती के अंदर समाहित कर दिया और हमारे ऊपर जीवन भर का कलंक छोड़ दिया कि हम कैसे समाज के भागीदार हैं, जो एक स्त्री के चरित्र पर सवाल उठाने से कतराते नहीं, इस पुरुष प्रधान समाज में सिया के राम का अस्तित्व कहाँ? पत्थर के समान भगवान राम ने सीता माँ का त्याग केवल समाज के लिए किया लेकिन हम सिया के राम को क्या सच में समझ पाए ? उनके जाने के बाद बिलख कर रोने वाले राम, जमीन पर सोने वाले राम को हमने समझने की कोशिश ही नहीं की। एक पुरुष जो राजाओं की एक से अधिक शादी करने की प्रथा को खत्म कर केवल माँ सीता को अपनी संगिनी बना बैठे और अंत में अपने प्राण यानी माँ सीता को ही उन्होंने समाज की संतुष्टि के खातिर त्याग दिया। 

यह त्याग सच में दिल को झकझोरने वाली है और इस कहानी में इतना दर्दनाक अंत जो हम सबकी‌आँखों में आंसू ला दे, लेकिन अब न तो कोई सीता है, और न ही कोई राम, वही समाज आज भी है, लांक्षन लगाने वाला, जो स्त्री के चरित्र पर सवाल उठाने से नहीं कतराता। वह पुरुषों के लिए समय सीमा नहीं तय करता लेकिन शाम और रात स्त्रियों के लिए थी नहीं यह तय कर चुका है। खैर अब कोई सीता भी नहीं क्योकि अब कोई राम भी नहीं। सीता माँ ने देख लिया की यह समाज निर्दयी है, इसलिए अब चंडी रूप ही इस समाज के लिए सही है।