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यह कविता बढ़ते पेट्रोल के दाम पर तंज है और समाज में रहने वाले उन मध्यमवर्ग के लोग जो इस महंगाई डायन से डर तो रहे हैं लेकिन अपनी कोई प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं कर रहे हैं।
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अजीब विडंबना है,
पेट्रोल के दाम बढ़े जा रहें हैं..
हम सौ रुपये भेंट स्वरूप दिए जा रहे हैं…
सवाल पूछने वाले दाम बढ़ाने का
फ़ायदा गिना रहे हैं….
हम भी शिकायत करने के बजाय
हुक़ूमत की मजबूरियां समझ कर
जागरूक नागरिक का धर्म निभा रहे हैं…
लगता है, हम अब सच में बदलाव ला रहे हैं,
विकसित हो गए हैं, हम इतना
जेब में पड़े पैसे भारी लग रहे हैं,
इसलिए देशहित में दान करा रहे हैं…
महंगाई डायन अब सताती नहीं,
पेट्रोल वाली खबर अब लुभाती नहीं,
समस्या नहीं जब जनता को तो
शायद इसलिए सरकारें दाम घटाती नहीं…
नाराज़गी की गूंज है लेकिन सुनाई नहीं देती
सवाल बहुत हैं, लेकिन उठाने वाला कोई नहीं
कैसी विडम्बना है ये, कौन सी सत्ता है ये
जनता जिसकी गजब की कायल
पेट्रोल के दाम से न लगती घायल,
फिर भी अच्छे दिन की आस में
जेब में पड़े पैसे लुटाये जा रहे हैं…