अपनों से दूर करता अहंकार

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अपनों से दूर करता अहंकार
20 Oct 2021
9 min read

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अहंकार मनुष्य को उस पल में भी अपनों के पास जाने की अनुमति नहीं देता, जब हमें उनकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। यदि अहंकार की भावना ने एक बार आपके मन में घर बना लिया तो कोशिश के बाद भी उसका कुछ अंश बाकी रह जाता है। रिश्तों के बिना ज़िंदगी काले रंग में रंगे उस कोरे कागज़ की तरह है जिस पर खुशियों के कितने ही रंग क्यों ना उड़ेल दो, वह फीका तथा रंगहीन ही प्रतीत होता है। इस भावना से स्वयं को दूर रख के हम ना जाने कितने रिश्तों को सहेज के रख सकते हैं।

व्यक्ति एक ऐसा प्राणी है, जो अपने भीतर अनगिनत भावनाओं की टोकरी को संजोए रखता है। इसके आधार पर ही वह अपनी छवि को दूसरों की नज़रों में एक आकार देता है। इन भावनाओं को ही अपना शस्त्र बनाकर वह औरों की प्रभा (व्यक्तित्व) का आंकलन करता है। विभिन्न प्रकार भी भावनाओं की उपस्थिति ने समाज नाम के समुद्र को जन्म दिया, जिससे प्रत्येक व्यक्ति चाहकर या अनचाहे रूप से जुड़ा हुआ है। प्यार, फिक्र, ईष्र्या, क्रोध, लालच, मोह, दया और अंहकार जैसे तत्वों का मिला-जुला संगम होता है यह भावना का दरबार। हम खुद को कितना भी नीरस करने का प्रयत्न कर लें पर कोई न कोई भावना हमारे मन को अपने वश में अवश्य कर लेती है और वही हमारे अस्तित्व को परिभाषित करने लगती है। हमारे जीवन में ऐसे कई लोग हैं जिनसे हम अथाह प्रेम करते हैं। उन्हें हम अपने जीवन में हमेशा के लिए बनाए रखना चाहते हैं। परन्तु प्रेम की चाह की मौजूदगी के बावजूद उत्पन्न हुए 'हम' की भावना हमें हमारे अपनों से दूर कर देती है। हम अपनों से दूर नहीं होना चाहते परन्तु हमारा अहंकार हमें उनके नज़दीक नहीं रहने देता।

रिश्तों के मध्य अहंकार मनुष्य के भीतर जन्में उस लता की भांति है, जो जिस वृक्ष की शाखा को लपेटकर खुद को समृद्ध बनाती है, उसी को धीरे-धीरे खोखली करने लगती है। अंत में ऐसा समय आता है जब वह पूरी तरह से उस वृक्ष के अस्तित्व को ख़त्म कर देती है। अहम की भावना भी दो मनुष्य के बीच के मधुर संबंध को ठीक इसी प्रकार धीरे-धीरे नष्ट कर देती है।

रिश्तों में क्यों जन्म लेता अंहकार 

मनुष्य योनि की यह प्रवृत्ति होती है कि वह स्वयं को समृद्ध देखना चाहता है। हालांकि वह समृद्ध का सही मायने में अर्थ समझने में असमर्थ रह जाता है। स्वयं को साधनों से परिपूर्ण करना ही मनुष्य के लिए समृद्ध की परिभाषा कहलाता है। जब हम ख़ुद को इस स्तर तक पहुंचा देते हैं, तो‌ हमारे अंदर यह ख्याल अपना पैर पसारने लगता है, जिसमें हम स्वयं को औरों से श्रेष्ठ समझते हैं। हम तब उस पड़ाव पर होते हैं जहां हमारी इच्छा यह होती है कि हमारे संपर्क में रहने के लिए हमारे अपने पहल करें हम नहीं। जब ऐसा नहीं होता तो हम अपमानित महसूस करते हैं तथा प्रियजनों से ना चाहते हुए भी दूर होने लगते हैं।

स्वाभिमान को ना दें अभिमान का चेहरा

मनुष्य के भीतर स्वाभिमान का होना एक सम्मान भरी ज़िन्दगी के लिए आवश्यक है। मगर हमें यह ध्यान रखना कि वह स्वाभिमान अभिमान में परिवर्तित ना हो। हम इन दो भावों में अंतर नहीं कर पाते और मन में उपजे दंभ (अहंकार) को स्वाभिमान का नाम देकर औरों से उचित व्यवहार नहीं करते। इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि सामने वाला व्यक्ति आपको एक नकारात्मक, जटिल और भावहीन मनुष्य के चेहरे में देखने लगता है। इसका परिणाम यह होता है कि हम अपनों से कटकर अकेले रह जाते हैैं। 

अहंकार से मनुष्य रह जाता अकेला

अहंकार मनुष्य को उस पल में भी अपनों के पास जाने की अनुमति नहीं देता, जब हमें उनकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। यदि अहंकार की भावना ने एक बार आपके मन में घर बना लिया तो कोशिश के बाद भी उसका कुछ अंश बाकी रह ही जाता है। रिश्तों के बिना ज़िंदगी काले रंग में रंगे उस कोरे कागज़ की तरह है, जिस पर खुशियों के कितने ही रंग क्यों ना उड़ेल दो, वह फीका तथा रंगहीन ही प्रतीत होता है। इस भावना से स्वयं को दूर रख के हम ना जाने कितने रिश्तों को सहेज के रख सकते हैं।