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इतिहास ही कुछ ऐसा है कि हम बचपन से तारीख और सन याद करते हुए आए हैं और उसे ही महत्व देते आए हैं, इतिहास के परीक्षाओं में प्रश्न भी कुछ तिथि के हिसाब से पूछे गए हैं। क्योंकि तारीख तथ्य का काम करती है। हमारा संविधान भी लिखित मांगता है और उसे प्रमाण की ज़रूरत है, इसलिए इतिहास में तारीख और सन का महत्व है।
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इतिहास हमेशा तारीख़ और अनुमानित दस्तावेजों का पाबंद रहा है। ज़ाहिर सी बात है, जब हमनें आज़ादी के बारे में सोचा होगा तो वह 1857 के किसी एक तारीख को नहीं शुरू हुई होगी। आवाज़ 1857 के पहले भी उठे होंगे, विद्रोह उससे पहले भी हुए होंगे, लेकिन जब भी हम इतिहास के पन्ने पलटेंगे तब हमें 1857 इसवीं को ही पहला स्वाधीनता संग्राम जानने को मिलेगा। 15 अगस्त 1947 को ही स्वाधीनता दिवस मनाया जाता है। जब हम कहते हैं कि मनाया जाता है, तो हम 14 अगस्त तक भी आज़ाद थे, लेकिन तारीख हमने 15 अगस्त को चुना, क्योंकि उसी दिन आगामी प्रधानमंत्री के द्वारा स्वतंत्रता का बिगुल पूरे देश में बजने के बाद ही हमने यह सुनिश्चित किया कि हम अब पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं। ज़ाहिर सी बात है, स्वतंत्रता के बाद ही हर किसी के मन में विचार उत्पन्न हुए होंगे कि अब इस देश को अंग्रेजों के जाने के बाद किस तरह से संचालित किया जाए? जिसके चलते 29 अगस्त 1947 को एक कमेटी गठित की गयी, काफी विचार-विमर्श के बाद हमनें 26 नवंबर1949 को संविधान को अपनाया था लेकिन इसे गणराज्य दिवस के रुप में लागू हमने 26 जनवरी 1950 को किया। सोचने वाली बात तो यह है कि ये तारीख इतनी महत्वपूर्ण क्यों है? हम इसी दिन क्यों जश्न मनाते हैं? क्यों हम 26 नवंबर 1949 को हर साल संविधान दिवस मनाते हैं? जबकि विचार तो पहले से ही उत्पन्न हुए थे और बदलाव तो आज भी होते ही हैं।
जब विचार विमर्श के बाद हमारा संविधान बन कर पूरा तैयार हुआ तो यह 26 नवंबर को ही सभा में प्रस्तुत किया गया और इसी दिन इसे भारत के संविधान के रूप में स्वीकार कर लिया गया। यही कारण है की हम इस दिन को संविधान दिवस के रूप में मनाते हैं। इतिहास के परीक्षाओं में प्रश्न भी कुछ तिथि के हिसाब से पूछे गए हैं। क्योंकि तारीख तथ्य का काम करती है। हमारा संविधान भी लिखित मांगता है और उसे प्रमाण की ज़रूरत है इसलिए इतिहास में तारीख और सन का महत्व है।
संविधान का इतिहास अगर देखा जाये तो उसकी शुरुआत संग्रामियों के दिमाग में सपने जैसा रहा होगा। अपना देश अपना कानून अपना संविधान, जब यह सपना हकीकत में तब्दील हुआ तो सोचिये उस वक़्त क्या मंजर रहा होगा, हम आज भी उस गर्व का अनुभव कर सकते हैं। इतिहास के पन्ने भी कम पड़ जायेंगे, किताबे कम पड़ जाएँगी, लेखक के शब्द कम पड़ जायेंगे लेकिन हर एक संग्रामियों के नाम नहीं शामिल हो पाएंगे। कितने लोगों ने अपना खून पानी की तरह बहा दिया, कितनी माताओं ने अपने बेटे को शहीद होते देख आंसू नहीं बहाये बल्कि गर्व किया। हम जितना इस इतिहास में डूबते जायेंगे इस सागर की गहराई और बढ़ती जाएगी। इस बात को हम रवींद्रनाथ के उस कथन से अनुभव कर सकते हैं, जब उन्होंने कहा कि " मैं अभी तक कुछ जान ही नहीं पाया और जाने का समय भी हो गया।
हम जब संविधान की बात करते हैं तो, इतिहास में अंकित तिथि 29 अगस्त 1947 सर्वप्रथम ज़हन में आता है, जब हमारे देश के संचालक इस सपने को हकीक़त बनाने के लिए सबसे पहला कदम उठा रहे थे। संविधान का मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, भारतीय बहुज्ञ, विधिवेत्ता और समाजसुधारक डॉ॰ बाबासाहब अम्बेडकर को सौंपी गयी। बाबा साहेब की अध्यक्षता में एक प्रारूप कमेटी का गठन किया गया, जिसे संविधान का ड्राफ्ट बनाकर पेश करने में करीब तीन साल लगे। लगभग तीन साल बाद यानी 1949 में तारीख़ 26 नवंबर को संविधान सभा में कमेटी के अध्यक्ष द्वारा संविधान का पहला ड्राफ्ट पेश किया गया। इसलिए हम तब से लेकर आजतक हर साल 26 नवंबर को ही संविधान दिवस मानते हैं। वैसे तो इस दिन को हमने इसे आधिकारिक रूप से राजपत्र अधिसूचना के ज़रिये 2015 में स्वीकार किया था। यह दिन हमने इसलिए चुना क्योकि अभी तक जो हमारे विचारों में था, अब वह लिखित हो चुका था और प्रमाण में तब्दील हो चुका था। हमने संविधान को अपनाया, देश को विकास की ओर बढ़ाया, अंग्रेज़ो के नियम कानून को हटाकर हमने अपना कानून बनाया। वैसे तो संसद में संविधान बनाने की पहल 11 दिसंबर1947 को ही कर दी गयी थी।
दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र को अब उसके संविधान का प्रारूप मिल चुका था, जिसे 26 जनवरी 1950 को लागू कर दिया गया। हम स्वतंत्र तो 15 अगस्त 1947 को ही हो गए थे, परन्तु पूर्ण स्वराज हमें तब मिला जब हमने देश को संचालित करने के लिए संविधान को पूरे देश में लागू कर देश को गणतंत्र कर दिया, इसलिए इस दिन हम पूर्ण स्वराज्य मनाते हैं, जिसकी घोषणा देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाने के रूप में की थी। 72 साल से हम गणराज्य हैं, हम समयानुसार और सुविधानुसार संविधान में बने कानूनों में बदलाव करते आये हैं। संविधान में अभी तक लगभग 100 से ऊपर संशोधन किये जा चुके हैं। हमारा संविधान भविष्य की सारी आशंकाओं को संज्ञान में लेकर बनी हैं। इसलिए यह काफी लचीला है, इसे सुविधा अनुसार हम तब्दील कर सकते हैं। दुनिया के सबसे लम्बे लिखित संविधान के साथ हम अब पूर्णत; आज़ाद हैं।
भारत विविधतओं वाला देश है, मत में कभी सहमत तो कभी असहमत। हम बहुमत को मानने वाले देश हैं। हम अनेकताओं से पूर्ण फिर भी एकता में विश्वास करने वाले देश के रूप में जब आज़ाद हुए थे तब हम एक थे। लेकिन फिर विचारों का भेद इस कदर बढ़ गया कि देश के टुकड़े करने जैसी नौबत आन पड़ी। यह बात 1947 की है, अभी हम आज़ाद हुए थे लेकिन हमारे अंदर के कलह ने हमें बटने पर मजबूर कर दिया। यह काम भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के तहत किया गया, जो यूनाइटेड स्टेट के संसद में पारित किया गया था। यह ब्रिटिश सरकार द्वारा सबसे महत्वपूर्ण और अंतिम अधिनियम था। माउंटबेटन योजना के तहत 15 अगस्त को एक विभाजन किया गया। जिसमें भारत संघ अधिराज्य का निर्माण किया गया और 14 अगस्त को पाकिस्तान अधिराज्य का निर्माण किया गया। उसके बाद अंग्रेज शासन वाले भारत में एक और विभाजन हुआ जिसमें बंगाल प्रान्त को पूर्वी पाकिस्तान में तब्दील कर दिया गया, जो अब बांग्लादेश है और अब अलग देश है और वह भारत का हिस्सा नहीं है। बंगाल राज्य बाँटने के बाद पश्चिम बंगाल बन गया। जो कि भारत के नक्शे में पूर्व की तरफ आता है। इसी तरह उस समय पंजाब प्रान्त को पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त और भारत के पंजाब राज्य में बाँट दिया गया। पहले सीलोन (अब श्रीलंका) और बर्मा (अब म्यांमार) भारत के ही राज्य थे लेकिन उसे भी देश से अलग किया गया। वैसे इसे भारत के विभाजन के इतिहास में शामिल नहीं किया जाता है।
आज़ादी की लड़ाई की शुरुआत कहाँ से हुई होगी अगर हकीक़त में इसका पता किया जाये तो सोचियें, कितनी बार जब हम गुलाम रहे होंगे तो ज़हन में आज़ादी की बात आयी होगी? कितनों ने कोशिश की होगी शायद तरीका अलग हुआ होगा लेकिन क्या विद्रोह नहीं हुआ होगा? लेकिन जैसा कि इतिहास प्रमाण का पाबंद है, उस हिसाब से सन 1857 इतिहास के पन्ने पर इसलिए दर्ज है, क्योंकि इस दौरान विद्रोह का पहला बिगुल बजा था, जिसकी गूँज इतनी ताकतवार थी कि, उसकी धुन 15 अगस्त 1947 को जाकर बंद हुई। दरअसल 1857 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ संगठित प्रतिरोध की पहली अभिव्यक्ति थी। वैसे तो यह असफल प्रयोग रहा फिर भी सही मायनों में निर्णायक रहा। अंग्रेजों ने हमारे देश को एक औपनिवेशक कोठी की तरह व्यापार करने के लिए उपयोग किया। साम-दाम-दंड-भेद हर तरह से प्रताड़ित किया। लालच देकर कभी खरीदा तो कभी डिवाइड एंड रूल की थ्योरी अपनाई और अपने अधीन रहने को मजबूर कर दिया। उस परिस्थिति को अनुभव करने के लिए उदाहरण के तौर पर वर्तमान समय में सोचिये की आपको यदि किसी के अधीन रहने को कह दिया जाये तो क्या आप का दम नहीं घुटेगा? इस सवाल को सोचेंगे तो आपको महसूस होगा कि कैसे हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजों द्वारा प्रताड़ना को सहा था। खैर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने वालों के नाम बहुत हैं और उससे भी ज़्यादा गुमनाम हैं, लेकिन हम जितनों के बारे में जान पाए हैं, हम उनके एहसान के नीचे दबे हुए हैं, हमें साँस लेते वक़्त उन सभी पूर्वजों को सत सत नमन करना चाहिए, जिन्होंने हमें स्वतंत्र सांसे, खुद शहीद होकर भेंट कीं, हम भारतवासी आप सभी के जीवन भर आभारी हैं।
इतिहास के बारे में अभी हमने कुछ जाना ही नहीं। इतनी जानकारी केवल परीक्षाओं में नंबर दिला सकती है। शायद ही हम इतिहास के हर उस पल को जान सकें और हम जितना जानेंगे उतना कम होगा। खैर भारत में स्वतंत्रता का इतिहास हर एक भारतीय के लिए गर्व पत्रिका है, जिसे जान कर कभी हमारे नसों में बहते खून खौल जाते हैं, तो कभी हमारी आँखे नम हो जाती है, तो कभी कंधे चौड़े हो जाते हैं। वैसे तो हमारा भारत अंग्रेजों के आने से पहले सोने की चिड़िया कहलाता था, लेकिन उसपर बहुत से लालची देशों की काली नज़र पड़ने के चलते आज हम केवल भारत हैं, फिर भी सब से अलग हैं। हमारे अंदर गिरकर उठने की ताकत है, पूरे दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं जहाँ इतने सारे धर्म के लोग एक साथ इतनी विभिन्न संस्कृति, भाषा और बोली के साथ एकता के प्रतीक बने हुए हैं। हमारा भारत, हमारा संविधान, और हमारा इतिहास वह सागर है, जिसको जान पाना मुमकिन नहीं।
आज हम आज़ादी से विकास तथा विकसित होने की सोच रहे हैं। हम कितना भी आगे चले आएं हैं, लेकिन क्या हम ये भूल रहे हैं कि आज़ादी तो मिल गयी लेकिन अभी भी काफ़ी हद तक सामाजिक बीमारी, कुप्रथा व रूढ़ीवादी मानसिकता हमारे भीतर अपनी गहरी जड़ों को जमाए हुए है। जिससे हम अभी तक आज़ाद नहीं हो पाए हैं। ग़ौर फ़रमाने वाली बात तो यह है कि हमारे इस देश के गुलाम होने से पहले व गुलाम होने के बाद से लेकर आज़ाद होने तक और आज़ाद होने से लेकर आज़ादी के बाद भी एक समानता है कि हमारा देश यानी भारत पुरुष प्रधान समाज तब भी था, अब भी है। इसका कारण क्या हो सकता है? क्या बहुमत के कारण ऐसा है? या अधिकार के आधार पर? या ईश्वर द्वारा खुद इस निर्णय को लिया गया है?
हम बराबरी की बात तो करते हैं, लेकिन क्या यह हक़ीक़त है? क्या यह लड़ाई नहीं है, जिसे हमें मिलकर लड़नी है और इस लड़ाई को लड़ने वाले पुरुष और महिला दोनों होंगे, क्योकि यह लड़ाई वैचारिक है।कोई शुभ या अशुभ कार्य करने से पहले हम जिस प्रकार पहले उस कार्य से जुड़े विचारों को अपने मन में पनपने देते हैं और उसके बाद ही हम अगला कदम उठाते हैं, यानी हम वह शुभ या अशुभ कार्य को मन में आने के बाद ही उसे लोगों, समाज या फिर किसी एक खास वर्ग के सामने रख पाते हैं, ठीक उसी तरह ही अगर हम स्त्री और पुरुषों में समानता की बात करते हैं और उसके बाद भी हम पुरुष प्रधान समाज में रहते हैं तो इसका मतलब यह है कि हमारी जड़े तो कमजोर हैं ही लेकिन हमारे विचारों का प्याला पहले से ही भर गया है और ज़रूरत है तो अपने विचारों को सही करने की और अपने आसपास के माहौल में शिक्षा और जागरूकता फैलाने की। अगर हम अभी भी इस कार्य की शुरूआत करते हैं यानी कि अपने मन में नए विचार आने से खुद को नहीं रोकते तो जाहिर सी बात है स्त्री और पुरुषों में समानता भी एक विचार से ही शुरू की जा सकती है।
व्यक्ति एक ही घर, एक ही मोहल्ले, एक ही संप्रदाय में रहकर स्त्री और पुरुष में भेद करता है तो जात-पात, छुआछूत और देशभक्ति की बातें तो बहुत ही दूर की खीर है।ज़रूरत है अपने विचारों को सही दिशा में ले जाने की यानी कि अगर हम बाहर के देशों के पहनावे और उनकी भाषा की नकल कर सकते हैं, तो हमें उन विकसित देशों से सीखना भी होगा तभी सही मायने में हमारा देश इन कुरीतियों, दुष्विचारों से आज़ाद हो पाएगा।