मैं हिंदी हूँ

Share Us

5309
मैं हिंदी हूँ
16 Sep 2021
2 min read

Blog Post

बहुत पहले किसी विद्वान् के मुख से ये बात सुनी थी कि देश की तरक्की के पीछे उसकी अपनी एकल भाषा का बहुत महत्वपूर्ण हाथ और साथ होता है। परन्तु हम जिस देश में रहते हैं, वहां पर बोली जाने वाली भाषाओँ और बोलियों की गिनती करना थोड़ा मुश्किल है। साथ ही साथ जब बात हिंदी की आती है तब बड़ी फ़िक्र होती है इस भाषा को लेकर, क्योंकि यह राष्ट्र भाषा भाव से है और राज भाषा आधिकारिक रूप से परन्तु आज भी हिंदी अपना असल नाम, असल पहचान तलाशनें में लगी हुई है। यह कविता उसी भाव को दर्शाती है।

मैं हिंदी हूँ 

तुम्हारी माँ 

जिसे तुम सीना चौड़ा करके,

बोलते हो 

कि मैं हूँ तुम्हारी मातृभाषा 

मगर,

मुझे तुम पढ़ते हो अब 

किसी शर्मिंदगी से 

तुम्हारे ही वतन हिन्द पर 

मैं अब महज़ बिंदी हूँ 

मैं हिंदी हूँ 

 

मैं तब क्या थी 

मैं अब क्या हूँ 

मैं थी तब 

बीते बचपन के पन्ने में 

कहानी में, किस्से में 

कविता के हर हिस्से में 

एक रिश्ता गहरा करती थी 

अ से लेकर ज्ञ तक 

हर ज़ुबाँ पर टहला करती थी 

 

आखिर क्या हो गयी मैं अब 

एक भाषा की परिभाषा लेकर 

महज़ मैं बोली रह गयीं 

अपने रूह-ए-चमन में 

मैं स्याह अकेली रही गयीं 

 

हाँ घर के बासी कोने में 

अलमारी के शीशों में 

चुपचाप अकेली रहती हूँ 

जुबाँ में चिपके हिज्जे की 

खामोश मैं सिसकी लेती हूँ 

मैं टूटी सी पगडण्डी हूँ 

मैं हिंदी हूँ 

 

मेरा तो बस यही ख़्वाब है 

तुम सुनों मुझे 

तुम पढ़ो मुझे 

मैं स्वप्न नहीं सच्चाई हूँ 

मैं शोक नहीं शहनाई हूँ 

तुम एक दफा समझो मुझको 

मैं रेशम की बुनाई हूँ 

 

मछली जल की रानी थीं मैं 

जुबाँ की पहली कविता थी मैं 

तो, दौर मेरा अब आने भी दो 

तुम सारे अब मिलकर सोचो 

कि दुनिया भर की भाषाओँ से 

मैं क्यों आखिर मंदी हूँ 

मैं हिंदी हूँ 

मैं हिंदी हूँ