मानवता पर संकट

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मानवता पर संकट
15 Oct 2021
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मानवीयता को सुरक्षित रखने के लिए क्या हमें अपने संस्कारों की रस्सी को और कसने की ज़रूरत है? संस्कार हमारे जीवन के वो मानदंड हैं, जो हमें नैतिकता सिखाते हैं। जब बात संस्कार की आती है, तो यह बात केवल महिलाओं तक सीमित नहीं होती। संस्कार एक मनुष्य के आचरण और उसके व्यक्तित्व का परिचय कराता है। समाज के बहुत से नियम सार्थक नहीं लगते। समाज में हो रहे भेद-भाव या किसी भी प्रकार के अनैतिक कार्यों या सोच पर आपत्ति ज़ाहिर करने के लिए हमें विचार करने की कोशिश करनी होगी।

देश में आये दिन कुछ ऐसी ख़बरें सुनने में मिल ही जाती हैं, जो मानव जाति को शर्मसार करने वाली होती हैं, जो किसी पत्थर दिल के इंसान को भी दहला दे। ऐसी अमानवीय घटना हमें यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या अब हमारे अंदर दया, संवेदना, मानवता, सहिष्णुता, धर्य, सयंम, करुणा आदि भावनाएं खत्म हो चुकी हैं?

क्या हम जीते जी मर चुके हैं? प्रतिदिन कभी बलात्कार, लूट-पाट, दहेज़ उत्पीड़न, मॉब लिंचिंग, हत्या जैसी तमाम ऐसी ख़बरें मन को झंकझोड़ देती हैं। जैसे -जैसे हम आधुनिकता की तरफ अपने कदम बढ़ा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इस प्रकार की घटना हमें पीछे की तरफ धकेल रही हैं। इनमें से अगर हम बलात्कार की घटना पर ज़ोर डालते हैं, तो समाज का कुछ तपका बलात्कार के कारणों के पीछे अपनी दिलचस्पी दिखाते हैं। स्त्री के कपड़े, घर से निकलते समय इन सब पर चर्चा होती है। यहां तक कि ऐसा भी बोला जाता है कि यदि वह घर से शाम को या इस प्रकार के छोटे कपड़े न पहनती तो आज उसके साथ यह घटना नहीं होती। अब सोचिये ऐसी मानसिकता वाले लोग हमारे देश को दीमक की तरह चाल नहीं रहे तो क्या कर रहे हैं। इसी प्रकार देहज उत्पीड़न में भी कुछ इसी प्रकार की दलीलें दी जाती हैं। और ऐसा नहीं है कि ऐसे विचार के लोग केवल पुरुष हैं, दुखद बात तो यह है कि ऐसे छोटी सोच वाली मानसिकता कि वृद्धि में महिलाओं का भी पूरा हाथ है।

मानवीयता को प्रतिघात देने वाली ऐसी घटना में मॉब लिंचिंग का नाम भी शुमार है। यह झुंड या भीड़ द्वारा कानून से ऊपर उठ के किसी को सजा देने के लिए की गई हत्या है। अक्सर इस तरह की घटना में भीड़ किसी को अपराध का दोषी मान कर खुद सजा देने के लिए उतर जाती है। ये मामला नया नहीं है। भारत में  मॉब लिंचिंग के केस नए नही हैं। लेकिन भारत में ऐसे केस अलग से दर्ज नहीं किये जाते और ना ही इसके लिए अभी तक कोई कानून बना है। अपराधियों को उनकी सजा मिलनी चाहिए। ऐसी घटनाओं के बाद मानवता से विश्वास उठ गया है। इसमें भी कुछ लोग साम्प्रदायिकता की आग में इस घटना का प्रयोग घी की तरह कर के मानवता का दहन करने में लगे हुए हैं। देश का जागरूक नागरिक होने के कारण हमें अपने दायित्वों की समझ होनी चाहिए। हमें अपने संविधान पर भरोसा होना चाहिये। कानून व्यवस्था पर भरोसा करना चाहिए। इस तरह से पुलिस की सक्रियता के अभाव में सामाजिक अपराधों पर नियंत्रण हेतु स्वैच्छिक रूप से बनी समिति का सदस्‍य बन कर, भीड़ में छिप कर, अपनी पहचान को भीड़ बताकर जघन्य अपराध करने का किसी को अधिकार नहीं। अगर कोई व्यक्ति अपराधी भी है, तो उसे सजा देने का अधिकार केवल न्यायालय को दिया गया है। इस प्रकार की घटना कभी भूली नहीं जा सकती। इसमें लोगों के साथ-साथ मानवता की भी हत्या हुई है। अगर जनता ही फैसला लेने लगेगी तो देश में न्यायलय की कोई आवयश्कता नहीं।

मानवीयता को सुरक्षित रखने के लिए क्या हमें अपने संस्कारों की रस्सी को और कसने की ज़रूरत नहीं है? संस्कार हमारे जीवन के वह मानदंड है, जो हमें नैतिकता सिखाते हैं। जब बात संस्कार की आती है, तो यह केवल महिलाओं तक सीमित नहीं होनी चाहिए। संस्कार एक मनुष्य के आचरण और उसके व्यक्तित्व का परिचायक है। हमारे संस्कार हमारे परवरिश और माहौल पर निर्भर करते हैं। उदारण के तौर पर जिस घर में महिलाओं को इज्ज़त नहीं दी जाती उस घर के अधिकतर लोग समाज में भी महिलाओं को सम्मान देना सही नहीं समझते हैं।

समाज में पुरुष की छवि बचपन से ही बहुत कठोर बनाई जाती है। उन्हें यह सिखाया जाता है की मर्द को दर्द नहीं होता। यह बात उनके भीतर इस कदर तक बिठा दी गयी है, कि रोते देख पुरुष को चुप कराने के लिए बोलते हैं कि लड़की है क्या जो रो रहा है? कहकर पुरुषों को अपनी भावनाओं का कत्ल करने पर मजबूर कर देते हैं और साथ ही महिलाओं को कमज़ोर साबित करने की होड़ में लगे रहते हैं। जोकि हमारी रूढ़िवादी सोच का नतीजा है। जिसने मानवीय संवेदनाओं को पुरुष और स्त्री में बांट दिया है।

मानवता को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए हमें समाज में बड़े पैमाने पर बदलाव करने की आवश्यकता है। समाज के कोने-कोने में हमें बदलाव लाने की आग लगानी होगी। समाज के बनाए नियम क़ानून ही सर्वोपरि नहीं है। समाज के बहुत से नियम सार्थक नहीं लगते। समाज में हो रहे भेद-भाव या किसी भी प्रकार के अनैतिक कार्यों या सोच पर आपत्ति जाहिर करने के लिए हमें विचार करने की कोशिश करनी होगी। मनुष्यता को ही सबसे बड़ा मानव-धर्म मानने से हम फिर से दानव से मानव बन सकते हैं।