कृष्ण जन्माष्टमी, जिसे श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, कृष्णाष्टमी, गोपालाष्टमी, अष्टमी रोहिणी, श्रीकृष्ण जयंती या श्री जयंती भी कहा जाता है, पूरे विश्व में करोड़ों भक्तों द्वारा बड़े हर्ष और उत्साह से मनाई जाती है। यह पावन पर्व भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य जन्म का प्रतीक है। माना जाता है कि भगवान कृष्ण, भगवान विष्णु के आठवें और सबसे प्रिय अवतार थे।
यह त्योहार भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है और यह हमें हमेशा याद दिलाता है कि सत्य और अच्छाई की जीत बुराई पर होती है। इस दिन का असली महत्व भगवान के प्रति प्रेम और विश्वास को समर्पित है, साथ ही उस वचन को भी याद करना है जिसमें उन्होंने धरती पर धर्म की रक्षा का आश्वासन दिया था।
इस अवसर पर भक्त उपवास रखते हैं, पारंपरिक वस्त्र पहनते हैं और भगवान कृष्ण की मूर्तियों को सुंदर वस्त्र व आभूषणों से सजाते हैं। वे परिवार की सुख-समृद्धि और मंगल के लिए भगवान से आशीर्वाद मांगते हैं।
जन्माष्टमी का पर्व Festival of Janmashtami केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भक्ति, प्रेम और एकता का ऐसा अवसर है जो लोगों को विश्वास और आनंद के बंधन में जोड़ देता है।
भारतीय संस्कृति में भगवान कृष्ण का नाम प्रेम (दिव्य प्रेम) और भक्ति (अटूट समर्पण) का प्रतीक माना जाता है। उनके जन्म की पवित्र कथा उनके अवतार का एक सुंदर प्रसंग है, जिसमें उन्होंने धर्म की स्थापना और भूदेवी (माता पृथ्वी) को अधर्म से बचाने के लिए धरती पर जन्म लिया।
श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में वर्णन है कि यह दिव्य जन्म मथुरा की जेल में हुआ, जहां अत्याचारी राजा कंस ने माता देवकी और पिता वसुदेव को कैद कर रखा था। आधी रात को भगवान विष्णु ने प्रकट होकर देवकी और वसुदेव को बताया कि वे उनके आठवें पुत्र के रूप में अवतरित हो रहे हैं।
चमत्कारिक रूप से, वसुदेव जी ने नवजात कृष्ण को यमुना पार कर गोकुल पहुंचाया, जहां माता यशोदा और नंदबाबा ने उन्हें अपने पुत्र के रूप में पाला। जन्माष्टमी का पर्व इसी अद्भुत कथा की याद में मनाया जाता है, जो स्वर्ग और पृथ्वी दोनों में प्रेम और आनंद का संदेश देती है।
हिंदू पंचांग के अनुसार, भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जन्माष्टमी मनाई जाती है। 2025 में अष्टमी तिथि 15 अगस्त रात 11:49 बजे शुरू होगी और 16 अगस्त रात 9:34 बजे समाप्त होगी।
इस कारण यह पर्व दो अलग-अलग दिनों पर, अलग-अलग परंपराओं के अनुसार मनाया जाएगा —
15 अगस्त – स्मार्त संप्रदाय: पंचदेव की पूजा करने वाले गृहस्थ लोग इस दिन जन्माष्टमी मनाएंगे। इनका उत्सव रोहिणी नक्षत्र के आधी रात उपस्थित रहने पर आधारित है, जो भगवान कृष्ण के जन्म का समय माना जाता है।
16 अगस्त – वैष्णव संप्रदाय: भगवान विष्णु के भक्त वैष्णव संप्रदाय इस दिन उत्सव मनाएंगे। यह परंपरा उदया तिथि (सूर्योदय के समय की तिथि) पर आधारित है।
निशीथा पूजा: 16 अगस्त को रात 12:04 बजे से 12:47 बजे तक (43 मिनट का सबसे शुभ समय)
ब्रह्म मुहूर्त: सुबह 04:24 बजे से 05:07 बजे तक
विजय मुहूर्त: दोपहर 02:37 बजे से 03:30 बजे तक
गोधूलि बेला: शाम 07:00 बजे से 07:22 बजे तक
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जन्माष्टमी का उत्सव भक्ति और सामुदायिक एकता का रंगीन प्रदर्शन है। इस दिन भक्त कई विशेष रीति-रिवाज निभाते हैं—
उपवास: कई भक्त पूरे 24 घंटे का व्रत रखते हैं और अष्टमी तिथि समाप्त होने के बाद ही व्रत खोलते हैं। व्रत खोलते समय भगवान कृष्ण को भोग लगाया जाता है, जिसमें उनके प्रिय व्यंजन जैसे माखन, दूध और दही शामिल होते हैं।
श्रृंगार और पूजा: भगवान कृष्ण की प्रतिमाओं को स्नान कराकर नए वस्त्र और आभूषण पहनाए जाते हैं। इसके बाद आधी रात को निशीथा पूजा होती है, जिसमें कृष्णजी के प्रिय व्यंजनों का अर्पण किया जाता है।
सांस्कृतिक उत्सव: भजन-कीर्तन और कृष्ण नाम के उल्लासपूर्ण संकीर्तन से माहौल भक्तिमय हो जाता है। महाराष्ट्र में दही हांडी की परंपरा विशेष आकर्षण होती है। इसमें युवा मिलकर मानव पिरामिड बनाते हैं और ऊँचाई पर लटके मटके को फोड़ते हैं, जो कृष्णजी की बाललीलाओं का प्रतीक है।
इस्कॉन (इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शसनेस) ISKCON (International Society for Krishna Consciousness) की स्थापना 13 जुलाई 1966 को न्यूयॉर्क में ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने की थी। यह गौड़ीय वैष्णव परंपरा पर आधारित एक वैश्विक भक्ति आंदोलन है।
इसका मुख्यालय पश्चिम बंगाल के मायापुर में स्थित है और इसके 800 से अधिक मंदिर व केंद्र दुनिया भर में हैं। इसका उद्देश्य भक्ति योग, शाकाहार, वैश्विक खाद्य सेवा और श्रीमद्भगवद्गीता व अन्य शास्त्रों के माध्यम से कृष्ण भक्ति का प्रसार करना है।
दुनिया भर के इस्कॉन मंदिर, जैसे पटना का इस्कॉन मंदिर, जन्माष्टमी के लिए भव्य आयोजन करते हैं—जिसमें मध्यरात्रि अभिषेक, हजारों प्रकार के प्रसाद और अंतरराष्ट्रीय भागीदारी शामिल होती है।
जन्माष्टमी का पर्व केवल भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। सिंगापुर, न्यूज़ीलैंड, यूके, अमेरिका, कनाडा जैसे देशों में यह विशेष रूप से लोकप्रिय है और बांग्लादेश में यह एक राष्ट्रीय अवकाश है।
कई घरों में इस दिन प्रतीकात्मक रूप से बांसुरी (कृष्णजी का प्रिय वाद्य) घर लाने की परंपरा है। ऐसा माना जाता है कि इससे घर में भगवान कृष्ण का आशीर्वाद, शांति और सुख-समृद्धि आती है।
भाद्रपद माह, खासकर कृष्ण पक्ष की अष्टमी, का विशेष आध्यात्मिक महत्व है। इस समय के साथ आने वाला गणेश चतुर्थी का पर्व जीवन में धर्म पालन, भक्ति, संतुलन और प्रगति के संदेश को और मजबूत करता है।
भारत में भगवान कृष्ण को समर्पित असंख्य मंदिर हैं। इनमें से कई ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, खासकर मथुरा और वृंदावन में, जहाँ भगवान कृष्ण का जन्म और बाल्यकाल बीता। देश के अन्य हिस्सों में भी कई प्रमुख मंदिर हैं, जिनकी अपनी अलग कहानी और वास्तुकला है।
यह वृंदावन के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। "बांके बिहारी" नाम कृष्ण की त्रिभंग मुद्रा (तीन स्थानों से झुकी हुई) को दर्शाता है। मंदिर का माहौल हमेशा भक्तिमय और जीवंत रहता है, खासकर होली और जन्माष्टमी के समय। यहाँ की एक खास परंपरा है—दर्शन के दौरान बार-बार पर्दा खींचना और खोलना, ताकि भक्त भगवान की अद्भुत सुंदरता से अभिभूत न हो जाएँ।
यह मंदिर उस स्थान पर स्थित है जिसे भगवान कृष्ण का जन्मस्थान माना जाता है। मुख्य गर्भगृह (गर्भा गृह) वही कारागार है जहाँ देवकी और वसुदेव ने भगवान कृष्ण को जन्म दिया था। मंदिर का कई बार पुनर्निर्माण हुआ है और जन्माष्टमी पर यहाँ भव्य आयोजन होते हैं।
सफेद इतालवी संगमरमर से बना यह आधुनिक मंदिर वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। 54 एकड़ में फैले इस मंदिर में सुंदर नक्काशी और संगीत के साथ चलने वाले फव्वारे हैं, जो राधा-कृष्ण की लीलाओं को दर्शाते हैं। यह जगह आध्यात्मिक और शैक्षिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
गुजरात के समुद्र तट पर स्थित यह मंदिर चार धाम यात्रा का एक प्रमुख केंद्र है। यहाँ कृष्ण को "द्वारका के राजा" (द्वारकाधीश) के रूप में पूजा जाता है। मान्यता है कि यह मंदिर कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ ने 2,500 वर्ष पहले बनवाया था। पाँच मंज़िला यह मंदिर 72 स्तंभों पर टिका हुआ है और चालुक्य शैली की वास्तुकला का सुंदर उदाहरण है।
ओडिशा का यह विशाल मंदिर भगवान जगन्नाथ (कृष्ण का एक रूप), बलभद्र और सुभद्रा को समर्पित है। यह अपने ऊँचे शिखर और विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा के लिए जाना जाता है, जिसमें लाखों भक्त शामिल होते हैं।
कर्नाटक में स्थित यह मंदिर 13वीं शताब्दी में संत मध्वाचार्य द्वारा स्थापित किया गया था। यहाँ एक विशेष "नवग्रह किंडी" (नौ छेदों वाली खिड़की) से ही भगवान के दर्शन किए जा सकते हैं। "पर्याय" उत्सव यहाँ की विशेष परंपरा है, जिसमें हर दो साल में मंदिर का प्रबंधन आठ मठों में से एक को सौंपा जाता है।
केरल का यह मंदिर "दक्षिण का द्वारका" कहलाता है। यहाँ भगवान कृष्ण को चार भुजाओं वाले विष्णु रूप में पूजा जाता है। मान्यता है कि इस प्रतिमा को गुरु (देवताओं के गुरु) और वायु देव ने पृथ्वी पर स्थापित किया था।
भारत में भगवान कृष्ण का आध्यात्मिक प्रभाव गहराई से महसूस किया जाता है। उनके मंदिर केवल पूजा स्थल ही नहीं, बल्कि भक्ति, कला और सांस्कृतिक धरोहर के जीवंत प्रतीक हैं। मथुरा की यमुना किनारे की पावन भूमि से लेकर द्वारका के पवित्र समुद्री तट तक, हर मंदिर उनकी लीलाओं, शिक्षाओं और चमत्कारों की अनूठी कहानियाँ सुनाता है।
जन्माष्टमी के अवसर पर या किसी भी दिन इन पवित्र स्थलों का दर्शन करना मन को शांति, विश्वास और भगवान से गहरा जुड़ाव प्रदान करता है। चाहे आप भक्त हों, इतिहास प्रेमी हों या कला और वास्तुकला के प्रशंसक—भगवान कृष्ण के मंदिर सदियों से लोगों को प्रेरित करते आए हैं और आगे भी करते रहेंगे।