दहलीज़-महिला समानता दिवस

Share Us

5226
दहलीज़-महिला समानता दिवस
26 Aug 2021
5 min read

Blog Post

हम आज महिलाओं के बाबत ऐसी स्थिति में आ गये हैं की हमें महिला उत्थान की बात करनी पड़ रही है। और बड़े मजे की बात है कि ये उत्थान की बात भी पुरुष ही ज्यादातर करते हैं। महिलाएं धीरे-धीरे इस परिस्थिति को समझ रही हैं और अब अपने हक़ के लिए लड़ना शुरू कर रहीं हैं। बुद्धिजीवियों के द्वारा महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक और तमाम समानताओं को दिलाने के लिए आज के दिन को महिला समानता दिवस के रूप में मानाया जाता है।

समय की परिभाषा सामाजिक वातावरण से ज्ञात होती है। समय स्वयं में हमेशा ही पूर्ण रहा है। समय कभी भी बंधन के खूटे से बंध कर नहीं चलता। समय न कभी सतयुग को परिभाषित करता हैं, न द्वापर युग को, न ही कलयुग को बल्कि हम समय को मानक रखकर युगों को परिभाषित करते हैं। कितनी ही बातें हर युग की पीछे छूट जाती हैं और आने वाले युग के लिए या तो प्रेरणा बनती हैं या अभिशाप बनती हैं। हम सब ने न जाने कितने ही आयामों, न जाने कितने ही माध्यमों से सुना है, पढ़ा है कि महिलाओं की स्थिति सतयुग में बहुत अच्छी थी। सतयुग में महिलाओं और पुरुषों के मध्य किसी प्रकार का कोई भेद नहीं था। हालाँकि शारीरिक भेद तो प्रकृति द्वारा निर्मित किया गया है परन्तु मानसिक भेद मनुष्य की देन है। मानसिक भेद व्यक्तित्व को ऊँचा भी कर सकता है और हीनता से भी भर सकता है। रही बात सतयुग की तो शायद उस समय को सतयुग इसलिए कहा जाता होगा क्योंकि उस समय में किसी प्रकार का कोई मानसिक भेद नहीं था। रही बात कलयुग की तो आज के समय का नाम कलयुग इसलिए पड़ गया क्योंकि आज पुरुष और महिलाओं के मध्य मानसिक समानता में एक गहरी खाई जैसा बदलाव आ गया है। ये भेद कब कैसे बढ़ता चला गया किसी को ठीक-ठीक नहीं पता और न ही कोई जानने का इच्छुक है। पर ये सब महिलाओं के लिए वरदान है या कष्टमय है कहना आसान नहीं।

हम आज महिलाओं के बाबत ऐसी स्थिति में आ गये हैं कि हमें महिला उत्थान की बात करनी पड़ रही है। और बड़े मजे की बात है कि ये उत्थान की बात भी पुरुष ही ज्यादातर करते हैं। महिलाएं धीरे-धीरे इस परिस्थिति को समझ रही हैं और अब अपने हक़ के लिए लड़ना शुरू कर रहीं हैं। बुद्धिजीवियों के द्वारा महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक और तमाम समानताओं को दिलाने के लिए आज के दिन को महिला समानता दिवस के रूप में मानाया जाता है। ये कहने में किसी भी प्रकार की कोई झिझक, कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि न जाने कितनी ही महिलाओं को इसके बारे में जानकारी भी नहीं होगी कि उनको समानता दिलाने हेतु कोई दिवस भी मनाया जाता है। खैर इससे उलट देखा जाए तो बहुत सी महिलाऐं समाज के लिए प्रेरणा भी हैं जिन्होंने अपने घरों की दहलीज़ लाँघ कर समाज में एक रुतबा कायम किया, समाज को एक नई दिशा देने का कार्य किया। 

समाज के बदलते स्वरुप में महिलाओं को सम्मान मिलना अवश्य प्रारम्भ हुआ है परन्तु, अभी भी हम उस स्थिति में नहीं पहुंचे जहाँ से समानता की खायी पटी हुई दिखाई दे। भारतीय परिपेक्ष में देखा जाए तो आज के दौर ने इतनी तो करवट ली है कि अब लड़कियां पढ़ाई कर रहीं हैं और नौकरियों में भी संलग्न होना शुरू हो गयी हैं। लड़कियां बड़ी-बड़ी कम्पनी में कार्यरत हैं तथा अपने हुनर से इस पुरुषवादी समाज में खुद को उभारने का कार्य बखूबी कर रहीं हैं। लड़कियां सेना में भी अपना परचम लहरा रही हैं। राज्यों की पुलिस, खूफिया एजेंसियों में भी कार्यरत हैं। इन तमाम जगहों पर महिलाओं ने अपनी भागीदारी देना शुरू किया है। यह सब संभव हुआ बुलंद सोच के कारण और साथ ही साथ पारिवारिक वातावरण ने उन्हें अपने पर फैलाने का मौका दिया जिस कारण वे अपने अपने घरों की दहलीज़ लाँघ सकीं। मगर देखने वाली बात ये फिर भी रही कि जो शादी-शुदा महिलायें थी वह अपने आप को कामकाजी महिला बनाने में बहुत हद तक असफल रहीं। रूढिवादी समाज ने उन्हें घर की बेड़ियों से कभी आजाद होने का मौका नहीं दिया। बहुत कम महिलायें ही शादी के बाद इस सौभाग्य को जी पायीं कि विवाह पश्चात वे कार्य कर रहीं हैं। गांव, कस्बों और छोटे शहरों की महिलायें आज भी पूरा जीवन घर सवांरने में ही निकाल देती हैं। और यदि वह कुछ करने की सोचती हैं या करती हैं, तो समाज उनको पीछे खींचने का काम आज भी करता है। उनके पतियों से यह कह कर मजाक किया जाता है कि कैसे व्यक्ति हो तुम, जो अपनी पत्नी को नौकरी करने के लिए भेजते हो। अपनी पत्नी की कमाई खाते हो। ऐसी तमाम बेबुनियाद सी बातें करते हुए आज भी लोग मिल जायेंगे। पर कुछ लोग ऐसे भी मिल जायेंगे जो लड़का हो, लड़की हो या पत्नी सबके लिए घर की दहलीज़ खोलें रखते हैं, ताकि हर कोई अपनी-अपनी उड़ान भर सके।

कहते हैं न कुछ नया जब शुरू होता है, तो उस नए को शुरू करने में बहुत विषमताओं का सामना करना पड़ता है। कोई भी ईमारत एक रात में नहीं बनती, हाँ लेकिन एक रात में उस ईमारत को ढाया जरूर जा सकता है। वैसे ही जब महिलाओं ने स्वयं की समानता और उत्थान के बारें में बात करना शुरू की या ख़ुद को आंदोलित करना शुरू किया तब समाज ने उन्हें एक विषम नज़र से देखना शुरू किया। आदमी ही आदमी की आँख की चुभन है सो यहाँ तो बात महिलाओं की हो रही है। समाज ने कितना रोका, कितना टोका मगर कहते हैं न आँधियाँ कितनी भी तेज क्यों न हों जिन फूलों को खिलना होता है वह खिलकर ही रहते हैं। लोग कहते थे महिलायें खाना बनाना और घर की देखभाल करते हुए ही अच्छी लगती हैं परन्तु महिलाओं ने समाज को दिखा दिया कि घर चालने वाली महिलाएं हवाई जहाज भी उड़ा सकती हैं। समाज को यह बात हजम करने में कई साल लग गए परन्तु आज वही समाज इन महिलाओं पर फ़क्र करता है, जो कल को उन्हें दहलीज़ लाँघने पर खरी-खोटी सुनाता था, उन्हें विवाह की बेड़ियों में बाँध देता था या फिर कितनी ही बार उन्हें मार भी दिया जाता था। बहुत यातनाओं और संघर्ष के बाद आज महिलाओं ने एक सम्मान जनक स्थिति को पाया है मगर ये यात्रा अभी और लम्बी चलने वाली है।